उत्तराखण्ड

जल्दबाजी में पुलिस का फैसला, बहादुरी या आत्मघाती कदम

बड़े बुजुर्गों ने सही कहा है कि कोई भी कदम उठाने से पहले गंभीरता से उस पर विचार कर लेना चाहिए। जल्दबाजी में उठाया कदम नुकसानदायक होता है। फिर भी कई बार त्वरित निर्णय लेने पड़ते हैं।

बड़े बुजुर्गों ने सही कहा है कि कोई भी कदम उठाने से पहले गंभीरता से उस पर विचार कर लेना चाहिए। जल्दबाजी में उठाया कदम नुकसानदायक होता है।

फिर भी कई बार त्वरित निर्णय लेने पड़ते हैं। ऐसे में कई बार निर्णय सही हो जाए तो वाहवाही होती है और यदि गलत हो तो फिर हमें कोसने वालों को मौके मिल जाते हैं। करीब बीस साल पहले की बात है। रात के करीब नौ बजे देहरादून के क्लेमंटाउन क्षेत्र में डकैती की सूचना मिली।

तब मैं अमर उजाला में कार्यरत था। इस सूचना पर मैं और सहयोगी प्रदीप गुलेरिया और एक छायाकार मौके की तरफ रवाना हो गए। तब हमें सिर्फ यही सूचना थी कि किस गांव में डकैती पड़ी है। पूरी जानकारी हमें मौके पर ही जाकर मिलनी थी।

ऐसे में हम कार से जैसे ही गांव में प्रवेश करने लगे तो ग्रामीणों की भीड़ ने हमें रोक लिया। भीड़ के तेवर काफी उग्र थे और अधिकांश के हाथ में डंडे व अन्य हथियार थे। ग्रामीण हर आते-जाते को ही डकैत समझकर उससे दो-दो हाथ करने पर उतारु थे। हमने समझाया कि हम प्रेस से हैं और डकैती की सूचना पर ही गांव पहुंचे हैं। ऐसे में काफी पूछताछ के बाद ही भीड़ ने हमें उस मकान तक जाने का रास्ता बताया जहां डकैती पड़ी थी।

ग्रामीणो की एकता व तेवर को देखकर मुझे यही आश्चर्य हो रहा था कि इस गांव में आखिरकार कैसे डकैती पड़ गई। जहां एक आवाज में ग्रामीण मदद के लिए सड़को पर निकल जाते हों, वहां डकैतों का दुस्सहास भी कुछ कम नहीं था। डकैती की सूचना के तुरंत ही ग्रामीण यदि तत्परता दिखाते तो शायद डकैत उनके कब्जे में होते।

खैर हम उस मकान में पहुंचे, जहां डकैती पड़ी थी। घर के सदस्यो से बातचीत में पता चला कि करीब 14 वर्षीय किशोर ने जैसे ही किसी काम के लिए घर में प्रवेश करने वाली मुख्य ग्रिल खोली, तभी हथियारबंद बदमाश भीतर घुस गए। सदस्यों को डरा धमका कर उन्होंने घर का सारा सामान खंगाला।

अपने मतलब का सामान बटोरा। आश्चर्य की बात ये है कि एक लकड़ी का संदूक को वे खोल ही नहीं पाए। ना जाने कैसे संदूक जाम हो गया। खैर उसमें बदमाशों को कुछ मिलने की उम्मीद कम ही थी, क्योंकि मोटा माल वे बटोर चुके थे। फिर घर के सामने ही जंगल की तरफ भाग निकले।

पुलिस आई, तो वह भी पूछताछ करने लगी। तभी ग्रामीणो ने कहा कि बदमाश ज्यादा दूर नहीं गए होंगे। पूछताछ बाद में होती रहेगी, पहले उन्हें पकड़ो। उस समय सहायक पुलिस अधीक्षक युवा था और नई भर्ती भी। इस युवा में जोश भी था। वह ग्रामीणों के जत्थे को साथ लेकर जंगल की तरफ चल दिया। हम भी उनके साथ जंगल में प्रवेश कर गए। लगा कि जैसे बदमाश पुलिस को आगे ही मिल जाएंगे और हमें उन्हें पकड़ने की लाइव स्टोरी कवर करने का मौका।

जंगल में एक नाले पर उतरने के बाद सर्दी की इस रात में इतना अंधेरा छाया हुआ था कि हमें रास्ता तक नहीं दिखाई दे रहा था। नाले पर पानी भी बह रहा था। ऐसे में बदमाश को तलाशने की बजाय हमें खुद के सुरक्षित आगे बढ़ने पर ही ध्यान केंद्रित करना पड़ रहा था। एएसपी ने हाथ में सर्विस रिवालवर थामी हुई थी। काफी भटकने के बाद बदमाशों के मिलने की उम्मीद धूमिल होने लगी, लेकिन जंगल में अनजान रास्तों पर पूरा जत्था ही रास्ता भटक गया। तब दिमाग में यही आशंका चल रही थी कि कहीं झाड़ियों में छिपे बदमाशों ने हमारी तरफ गोलियां बरसा दी तो हम संभल भी नहीं सकेंगे।

पुलिस के पास टार्च तक नहीं थी और न ही जंगल में घुसते समय किसी ग्रामीण को इसका ख्याल आया। बीड़ी पीने वाले बीच-बीच में माचिस की तिल्ली जलाकर रास्ता सुझाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन सभी माचिसों की तिल्लियां भी जल्द खत्म हो गई।

इस भूलभुलैया वाले रास्ते में कुछ देर में हम घूमफिर कर वहीं पहुंच गए, जहां से हमने जंगल में प्रवेश किया। अब मेरे मन में सवाल उठता हैं कि -बगैर तैयारी के जल्दबाजी में लिया गया जंगल में प्रवेश का पुलिस का निर्णय बहादुरी वाला था या आत्मघाती।

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